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Showing posts from May 19, 2013
कर्म का केवल विपरीत परिस्तिथि का विरोध करना ही नहीं है अपितु अपरिहार्य परिस्तिथियों को परिपक्वता से स्वीकार करना भी है।
धर्म एक मार्ग है लक्ष्य नहीं।
आध्यात्म स्वयं को जानने का माध्यम है। इसका भौतिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है।
सतही एवं सीमित दृष्टिकोण को त्याग कर ही वास्तविक दृष्टि प्राप्त होती है।
नए तथा पुराने के बीच संतुलन बनाये रखना ही समझदारी है। क्या त्याज्य है एवं क्या अपनाने योग्य है इस बात का अंतर कर सकना आवश्यक है। 
ईश्वर से जो मिले बिना शिकायत स्वीकार करें। संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं।
अशांत मन से मनुष्य अपनी सबसे पसंदीदा वस्तु का भी आनंद नहीं ले पाता है।