आरम्भ अपने साथ उत्साह , उमंग , उम्मीद लेकर आता है। इसका स्वागत करें।
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Showing posts from 2014
नववर्ष
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समय की गति अबाध है। इसका न कोई आदि है न अंत। यह निर्लिप्त है। किंतु मनुष्य समय को भी सीमा में बाँध कर देखता है। एक क्षण ,घंटा ,दिन ,वर्ष। इस आधार पर एक वर्ष समाप्त हो रहा है और दूसरा आरम्भ। इस बीते हुए वर्ष का विश्लेषण किया जाएगा। इसे अच्छे और बुरे समय में बांटा जायेगा। कभी व्यक्तिगत आधार पर तो कभी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं के आधार पर। किंतु समय अबाध गति से आगे बढ़ता रहेगा। मनुष्य का एक और गुण है। वह उम्मीद पर जीता है। अतः इस उम्मीद से कि यह वर्ष सभी के लिए मंगलमय हो आप सभी को नववर्ष की शुभकामनाएं।
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समर्पण का अर्थ निष्क्रियता नहीं वरन बिना शिकायत के हर परिस्तिथि का सामना करना है। बहुधा लोगों को भ्रम होता है कि सब कुछ ईश्वर पर छोड़ कर नियत कर्म का त्याग ही समर्पण है। किंतु स्वयं भगवान ने श्रीमद् गीता में कहा है कि मनुष्य को किसी भी परिस्तिथि में अपने नियत कर्म नहीं त्यागने चाहिए। अतः फल को प्रभु कि इच्छा पर छोड़ कर कर्म करें। जीवन यात्रा का लक्ष्य स्वयं कि पहचान करना है। सभी प्राणियों में केवल मनुष्य को ही आत्मचिंतन कि शक्ति प्राप्त है। इस जीवन का उद्देश्य महज आहार, मैथुन, निद्रा एवं आत्मरक्षा ही नहीं। ये चरों गुण तो अन्य योनियों में भी पाये जाते हैं। आप के जीवन का लक्ष्य तो आत्म उन्नति के पथ पर चलना है। आपके भीतर कि समस्त ऊर्जा का स्रोत आपकी आत्मा है। आत्मा अविनाशी है। किसी भी प्रकार से इसे नष्ट नहीं किआ जा सकता है। यह ऊर्जा का पुंज है। इसकी शक्ति कि कोई सीमा नहीं। यही हमारा वास्तविक स्वरुप है। आवश्यकता है इसे पहचानने की। जिन्होंने इस वास्तविक स्वरुप को जान लिया वो आत्म उन्नति के शिखर तक पहुंचे। अतः इस ऊर्जा का सकारात्मक प्रयोग करें।
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प्रकृति में इतनी विभिन्नता है। अनेक प्रकार के जीव जंतु, पशु पक्षी, फल फूल। किन्तु इस विभिन्नता के पीछे क्या है? इन सभी विभिन्न रूपों में एक ही तत्व विद्यमान है, 'ईश्वर'। स्वयं श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवत गीता में कहा है कि ' मैं ही विभिन्न रूपों में वास करता हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का बीज प्रदान करने वाला पिता मैं ही हूँ।' अतः विभिन्नता में बसे उस एक तत्व को पहचानिये।
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वन्दे मातरम् सुजलां सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्यशामलाम् मातरम्। शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम् फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम् सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् सुखदां वरदां मातरम्।। १।। वन्दे मातरम्। सप्त-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले, अबला केन मा एत बले । बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं रिपुदलवारिणीं मातरम्।। २।। वन्दे मातरम्। तुमि विद्या, तुमि धर्म तुमि हृदि, तुमि मर्म त्वम् हि प्राणा: शरीरे बाहुते तुमि मा शक्ति, हृदये तुमि मा भक्ति, तोमारई प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी कमला कमलदलविहारिणी वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम् नमामि कमलाम् अमलां अतुलाम् सुजलां सुफलाम् मातरम्।। ४।। वन्दे मातरम्। श्यामलाम् सरलाम् सुस्मिताम् भूषिताम् धरणीं भरणीं मातरम्।। ५।। वन्दे मातरम्।। " Mother, I salute thee! Rich with thy hurrying streams, bright with orchard gleams, Cool with thy winds of delight, Dark fields waving Mother of might, Mother free. Glory of moonlight dreams, Over thy branches and lordly streams, Clad in thy blossoming trees, Mother, giver of ease ...
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ईश्वर पर आस्था क्यों आवश्यक है? अक्सर यह प्रश्न मन में उठता है। आस्तिकता और नास्तिकता में क्या अंतर है। ईश्वर में आस्था आवश्यकता नहीं वरन हमारा अन्तर्निहित गुण है। आस्था बाहर से आरोपित वस्तु नहीं है वरन हमारा स्वभाव है। स्वयं के होने का यकीन भी आस्था है। आस्था दृढ विश्वास का नाम है। तो फिर यह विश्वास ईश्वर पर क्यों? स्वयं पर ही क्यों नहीं? यह प्रश्न तभी उठता है जब हम ईश्वर को एक बाहरी सत्ता मान कर चलते हैं। किन्तु ईश्वर कोई बाहरी सत्ता नहीं है। ईश्वर तो हमारा अभिन्न अंग है। हम ईश्वर का ही अंश हैं। हमारे अस्तित्व का आधार ईश्वर ही है। अतः ईश्वर पर आस्था आवश्यक है। उससे मुह मोड़ना मतलब स्वयं से मुह मोड़ना। आस्तिकता यह जानना है की ईश्वर ही हमारा सर्वस्व है। इस बात का अज्ञान नास्तिकता है।
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डा. फादर कामिल बुल्के बेल्जियम से भारत आकर मृत्युपर्यंत हिंदी , तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे । उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन १९७४ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। नवंबर १९३५ में भारत, बंबई पहुंचे। वहां से रांची आ गए। गुमला जिले के इग्नासियुस स्कूल में गणित के अध्यापक बने। वहीं पर हिंदी, ब्रज व अवधी सीखी. १९३८ में, सीतागढ/हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखा। १९४० में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। १९४१ में पुरोहिताभिषेक हुआ, फादर बन गए. १९४५ कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी व संस्कृत में बीए पास किया। १९४७ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया। [1] रामकथा: १९४९ में डी. फिल उपाधि के लिये इलाहाबाद में ही उनके शोध रामकथा : उत्पत्ति और विकास को स्वीकृति मिली. १९५० में पुनः ...
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विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र की सफलता पर देशवासियों को बधाई। हमने एक बार फिर साबित किया कि विविधताओं से भरे इस देश में प्रजातंत्र को सफलतापूर्वक चलाया जा सकता है। अपनी आस्था, विश्वास, सपनों, इच्छाओं को ध्यान रखते हुए हमने वोट दिया और एक सुढ़ृड और स्थिर सरकार की नीव रखी। उम्मीद है हमें निराश नहीं होना पड़ेगा।
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जीवन में हम कई रिश्तों से घीरे होते हैं। जिनके बीच रह कर हम सुख दुःख का अनुभव करते हैं। मनुष्य ही नहीं वरन हम पशु पक्षियों पेड़ पौधे सभी के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं। क्यों हम दूसरों के साथ संबंध बनाने के इच्छुक हैं। इन संबंधों के ज़रिये हम उस परम शक्ति को खोजने प्रायास कारते हैं। ईश्वर परमात्मा स्वरुप हर जीव में वास करते हैं। यही कारण है कि हम उस परम शक्ति को खोजते हुए इन संबंधों में बंध जाते हैं। किंतु हम इस आत्मिक आकर्षण को पहचान नहीं पाते। अतः संबंधों को भौतिक धरातल पर है सवीकार करते हैं। यही कारण है कि हम मोह, माया, स्वार्थ, वैमनस्य के भावों से बंधे रहते हैं और कभी सुख तो कभी दुःख भोगते हैं। ईश्वर हमारे जीवन की आधारशिला है। जब हम सारे संबंधों का आधार उन्हें मान कर आगे बढ़ेंगे तो मोह, माया, स्वार्थ, वैमनस्य से दूर रहेंगे।